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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 75  महाराज वृषपर्वा ने शुक्राचार्य को लाख दुहाई दी कि बच्चों की बातों पर बड़ों को ध्यान नहीं देना चाहिए किन्तु शुक्राचार्य के विवेक पर पुत्री प्रेम भारी पड़ रहा था । उन्हें देवयानी के अपमान के सम्मुख महाराज वृषपर्वा, महारानी प्रियंवदा का मान सम्मान बिल्कुल तुच्छ लग रहा था । शुक्राचार्य को पता था कि वे मृत संजीवनी विद्या प्राप्त कर सर्वश्रेष्ठ बन चुके हैं । उनके सम्मुख बाकी सब लोग गौण हैं इसलिए वे दैत्यों के लिए अनिवार्य तत्त्व बन चुके हैं । उनके बिना दैत्य कुछ भी नहीं हैं इसलिए दैत्यराज वृषपर्वा को उनकी बात माननी ही होगी । उनके पास अन्य कोई विकल्प है ही नहीं । अपनी बात को और महत्व देने के लिए वे देवयानी से बोले "चलो देव , शीघ्र चलो । पहले ही बहुत अधिक विलंब हो चुका है । मेरी तपस्या का समय निकला जा रहा है । यह तपस्या मुझे पुष्य नक्षत्र में प्रारंभ करनी है और ये पुष्य नक्षत्र बस दो घड़ी और है । चलो, शीघ्र चलकर पुष्य नक्षत्र में तपस्या प्रारंभ करते हैं" । फिर वो महाराज की ओर देखकर बोले "अच्छा राजन ! हम लोग जा रहे हैं । आपका और दैत्य वंश का कल्याण हो" । कहकर शुक्राचार्य जाने को उद्यत हुए ।

शुक्राचार्य को तपस्या के लिए जाते हुए देखकर महाराज वृषपर्वा बहुत दुखी हुए । उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि शुक्राचार्य को कैसे मनाऐं ? उन्होंने अंतिम प्रयास करते हुए शुक्राचार्य के दोनों चरण पकड़ लिए और विनती करने लगे  "आप जब तक हमें क्षमा नहीं करेंगे तब तक मैं आपके पैर नहीं छोडूंगा आचार्य । आप जो भी चाहें मुझे दंड दे लें । मैं आपका शिष्य हूं , उफ्फ तक नहीं करूंगा । आप चाहें तो यह राज्य स्वीकार कर लें और आप चाहें तो मुझे कुछ भी आदेश दे दें , मैं उसकी पालना अवश्य करूंगा, गुरूदेव" । रोते रोते महाराज वृषपर्वा का गला बैठ गया था ।

महाराज वृषपर्वा और महारानी प्रियंवदा की विनती का शुक्राचार्य पर कोई असर नहीं हुआ । वे निर्विकार भाव से बैठे रहे । तब महारानी प्रियंवदा कहने लगी ।  "आप तो दैत्य कुल के कुलगुरू और हितैषी हैं आचार्य ! यदि आप ही इस तरह से व्यवहार करेंगे तो दैत्य वंश का कैसे काम चलेगा ? आपने तो "कामनाओं" पर विजय प्राप्त कर ली है गुरूदेव ! आप ईर्ष्या-द्वेष से परे हैं । आपका व्यक्तित्व बहुत विशाल है । आपका यश हिमालय से भी ऊंचा है । आप भोलेनाथ के परम भक्त हैं । माया मोह से परे हैं । फिर एक अबोध बालिका के हंसी ठिठोली में किये गए कृत्य को इतना अधिक महत्व क्यों दे रहे हैं ? क्या शर्मिष्ठा आपकी पुत्री नहीं है गुरूदेव ? यदि वह पुत्री है तो उसकी त्रुटि को क्या क्षमा नहीं किया जा सकता है ? इतने कठोर मत बनिए तात्, आप तो हमारे शुभचिंतक हैं, मार्गदर्शक हैं , रक्षक हैं , पिता तुल्य हैं , भगवान हैं । यदि आप ही हमें इस तरह नकारेंगे तो हम किसकी शरण में जायेंगे ? खेल खेल में यह घटना घटित हो गई इसमें न देवयानी का कोई दोष है और न ही शर्मिष्ठा का । शर्मि ने देवयानी का वस्त्र शीघ्रता में हुई भूल के कारण पहन लिया था । उसके लिए देवयानी ने उसे अपशब्द भी कहे थे किन्तु देवयानी और शर्मिष्ठा दोनों ही अंतरंग सखियां हैं । सखियों में हास परिहास, लड़ाई झगड़े चलते ही रहते हैं । उनके मध्य हम बड़े लोगों को नहीं पड़ना चाहिए । आप तो हमारे पूजनीय हैं , आप जो मार्ग सुझायेंगे, हम उसी पर चलते जायेंगे । सारा वृतांत आप जान ही गये हैं आचार्य । इसलिए हमें आदेश दीजिए कि हमें क्या करना है" ?  महारानी की मार्मिक बातों ने तीखा असर किया था । शुक्राचार्य ने देवयानी की ओर कनखियों से देखा । देवयानी निश्चय कर चुकी थी कि वह शर्मिष्ठा को सबक सिखाकर ही रहेगी । उसने अपनी भवें तानकर शुक्राचार्य को बता दिया कि वह शर्मिष्ठा को क्षमा करने वाली नहीं है । शुक्राचार्य महारानी से कहने लगे ।

"आपकी बातें कुछ हद तक सही हैं महारानी जी । यदि ये दोनों सखियां अपने विवाद को अपने स्तर पर ही सुलझा लेतीं तो हमें हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं थी । किन्तु पानी अब सिर से ऊपर तक आ गया है इसलिए हमें हस्तक्षेप करना पड़ रहा है । आप तो जानती हैं कि जब देवयानी 5 वर्ष की थी तब इसकी मां जयन्ती इसे छोड़कर चली गई थी । बिन मां की बच्ची है देवयानी । ममता को तरसती रही है सदैव । मैंने उसे माता और पिता दोनों का वात्सल्य देने का प्रयास किया है किन्तु देवयानी मेरी पुत्री है महारनी जी । पुत्र होता तो वह अपनी समस्त बातें मुझे कह सकता था किन्तु पुत्री अपनी समस्त बातें अपने पिता को नहीं बताती हैं । इस विषय में जो भी निर्णय लेना है वह देवयानी ही लेगी क्योंकि यदि शर्मिष्ठा ने कोई अपराध किया है तो वह देवयानी के प्रति ही किया है । मैं तो देवयानी और शर्मिष्ठा दोनों को एक जैसी मानता हूं । अत: यदि देवयानी शर्मिष्ठा को क्षमा कर देती है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है । किन्तु यदि वह उसे क्षमा नहीं करती है तो दंड भी वही तय करेगी , मैं नहीं । मैं इतना ही आश्वासन दे सकता हूं आपको" ।  बात घूम फिरकर देवयानी पर ही आ गई थी । सबने देवयानी की ओर देखा । देवयानी अकड़ कर दण्ड वत तनी हुई बैठी थी । उसके नेत्रों से अमर्ष स्पष्ट झलक रहा था । उसकी भाव भंगिमा भी रुष्ट होने वाली थी । क्रोध से अधर फड़क रहे थे । उसका यह रूप देखकर प्रियंवदा भयभीत हो गई । फिर भी वह याचना करते हुए देवयानी से कहने लगी  "पुत्री, तुम और शर्मिष्ठा तो बहुत अच्छी सखी हो , फिर छोटी सी बात पर इतना आवेश क्यों है सुते । सखियों में तो झगड़ा और मेल मिलाप चलता ही रहता है बेटी । बचपन में ऐसे अनेक अवसर आये थे जब तुमने उसकी गुड़िया तोड़ दी थी या उसका खिलौना नष्ट कर दिया था । तब तो तुम लोग आपस में ही निपट लिया करती थीं । अब ऐसा क्या हो गया है देव कि तुम उसे क्षमा करने में जरा भी उत्सुक नहीं हो । जरा विचार कर देखो पुत्री । कहीं ऐसा नहीं हो जाये कि आवेश में आकर तुम कोई ऐसा निर्णय ले लो जिस पर बाद में तुम्हें पश्चाताप करना पड़े । आवेश में लिये गये निर्णय अधिकांशत: गलत सिद्ध हुए हैं । अब बाजी तुम्हारे हाथ में पुत्री । तुम जो कहोगी शर्मिष्ठा वही करेगी । बताओ , तुम क्या चाहती हो" ?  देवयानी को विश्वास नहीं हुआ कि महारानी प्रियंवदा सही कह रही हैं इसलिए उसने विश्वास करने के लिए पुन: कहा "क्या आप मुझे वचन दे सकती हैं कि मैं जो चाहती हूं , आप उसे पूरा कर देंगी" ?

देवयानी की बात सुनकर प्रियंवदा उसके मन की थाह लेने लगी । लेकिन देवयानी के मन की थाह लेना कोई आसान काम नहीं था । दरअसल देवयानी ही क्यों , किसी भी नारी के मन की थाह लेना बहुत कठिन कार्य है । भगवान ने नारी को ऐसी शक्ति प्रदान की है कि वह गूढ बातों को घोलकर पी जाती है । अपने मन की गहराई तक किसी को जाने नहीं देती है । और देवयानी तो बहुत तेज मस्तिष्क की युवती थी । वह अपने मन की थाह कैसे लेने देती" ?

"तुम बताओ कि तुम क्या चाहती हो ? हम हरसंभव उसे पूरा करने का प्रयास करेंगे" महारानी वचन देने से बचना चाहती थीं । क्या पता देवयानी के मन में क्या है ? वह यदि राज्य भी मांग ले तो उसे दिया जा सकता था । परन्तु यदि वह और कुछ मांग ले तो ? इसलिए सोच समझकर ही वचन देना चाहिए । यह बात महारानी को समझ में आ गई थी ।

"जब आप कुछ देने की इच्छा ही नहीं रखती हैं तब बात करने से भी क्या लाभ" ? वह अपने पिता की ओर देखते हुए बोली "चलो पिता श्री , पुष्य नक्षत्र का समय निकला जा रहा है" । वह खड़े होते हुए बोली ।

देवयानी को खड़े होकर चलने के लिए उद्यत होते देखकर प्रियंवदा कहने लगी "इतनी कठोर मत बनो, पुत्री । तनिक शर्मिष्ठा की ओर देखो बेटा । कहीं उसका कुछ अनर्थ ना हो जाये" ?  "अनर्थ तो होकर रहेगा उसका । उसने इतना अधम कार्य किया है कि उसके लिए उसे मृत्युदंड भी दिया जाये तो कम है । और आप कह रही हैं कि मैं इतनी कठोर नहीं बनूं ? आपने शर्मिष्ठा से क्यों नहीं पूछा कि उसने मेरा वध करने का प्रयास क्यों किया ? जब उसने अपराध किया है तो दंड तो उसे भोगना ही होगा" । देवयानी नागिन सी फुंफकारती हुई   बोली ।  "अब आप ही इसे समझाइये गुरुदेव ! देवयानी प्रतिशोध की ज्वाला में धधक रही है । यह प्रतिशोध की ज्वाला पूरे दैत्य राज्य को लील जाएगी । इसे समझाइये गुरूदेव, इसे समझाइये" । प्रियंवदा की आंखों में आंसू आ गये ।

"मैं क्या समझाऊं इसे ? जब आप अपनी पुत्री को नहीं समझा सकीं तो मैं इसे कैसे समझा सकता हूं ? शर्मिष्ठा देवयानी की अपराधिनी है । देवयानी को उसे दंडित करने का अधिकार है । अत: जो दंड देवयानी निर्धारित करेगी , उसे वह दंड झेलना होगा । यदि यह स्वीकार्य है तो हां कहो , अन्यथा हम लोग तपस्या करने जा रहे हैं" । शुक्राचार्य भी खड़े होते हुए बोले ।

शुक्राचार्य को खड़े होते देखकर महाराज वृषपर्वा थर थर कांपने लगे । लडखड़ाते हुए कहने लगे "हमें छोड़कर मत जाइये गुरूदेव ! देवयानी जो भी दंड निर्धारित करेगी,  उसे देवयानी अवश्य पूरा करेगी" । महाराज चिंतित होते हुए बोले ।  "क्या आप यह वचन देवयानी को दे सकते हैं " ?  "जी गुरूदेव ! मैं वचन देता हूं । बोलो पुत्री , क्या दंड निर्धारित किया है तुमने मेरी शर्मि के लिए" ? महाराज वृषपर्वा हाथ जोड़कर देवयानी से बोले । एक पिता कितना बेबस , लाचार होता है यह आज महाराज वृषपर्वा को देखकर लग रहा था ।  "आपने वचन दिया है महाराज, इसलिए सुनो । मैंने शर्मिष्ठा के लिए यह दंड निर्धारित किया है कि उसे आज से ही आजीवन मेरी दासी बनकर रहना होगा । मैं जहां जाऊंगी , वह दासी के रूप में मेरे साथ जायेगी । वह एक दासी की तरह वस्त्र पहनेंगी , भोजन करेगी और दासियों के लिए बने घर में विश्राम करेगी । दासी के रूप में उसे अपने विवाह का कोई अधिकार नहीं होगा"  । देवयानी के मुंह से शब्द नहीं अपितु चिंगारियां निकल रही थीं । "अब आप जायें और मेरी दासी शर्मिष्ठा को मेरे पास भेज दें" । देवयानी महाराज का तिरस्कार करते हुए बोली ।

देवयानी के द्वारा निर्धारित दंड को सुनकर दसों दिशाऐं, 14 भुवन , समस्त देव, गंधर्व, यक्ष और मनुष्य सब थर्रा उठे । महाराज और महारानी वहीं पर मूर्छित हो गये । शुक्राचार्य भी इतने भीषण दंड को सुनकर हतप्रभ रह गये । उन्होंने यह नहीं सोचा था कि देवयानी इतना भयानक दंड देगी शर्मिष्ठा को । पर जो होना था वह तो हो ही चुका था । अब उस पर सोच विचार करने से क्या लाभ हो सकता है" ?

श्री हरि  20.8.23

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